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उत्तराखंड

निर्वाचन में स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ खजाने का बोझ कम करने की मंशा

प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए हमने फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली अपनाई है, जिसका अर्थ यह है कि सबसे अधिक वैध मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी विजयी होता है। यह प्रणाली ग्राम पंचायत, राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के निर्वाचन में प्रयोग में लाई जाती है।  

निर्वाचन अर्थात जन प्रतिनिधियों का चुनाव प्रतिनिधि लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह सर्वविदित है कि भारत प्रतिनिधि लोकतंत्र का सर्वोत्तम उदाहरण है, क्योंकि यह न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि यह सबसे सफल लोकतंत्रों में से भी एक है। भारत में निर्वाचन की एक और बड़ी विशेषता यह भी है कि यहां एक आदर्श संसदीय प्रणाली की भांति प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों ही प्रकार के निर्वाचन का मिश्रित प्रावधान है।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए हमने फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली अपनाई है, जिसका अर्थ यह है कि सबसे अधिक वैध मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी विजयी होता है। यह प्रणाली ग्राम पंचायत, राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के निर्वाचन में प्रयोग में लाई जाती है। दूसरी ओर, अप्रत्यक्ष निर्वाचन के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत एकल संक्रमणीय पद्धति का प्रयोग जिला परिषद, विधान परिषद, राज्यसभा, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में किया जाता है। यहां यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि संरचना की दृष्टि से भारत एक संसदीय परिसंघ है। अतः राज्यों में निर्वाचन भी संसदीय निर्वाचन के समान महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचन को एक साथ (एक तिथि पर या एक निश्चित समय सीमा के भीतर) कराया जाए, तो कदाचित इससे न केवल निर्वाचन की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित हो सकती है, बल्कि राज्य के खजाने पर पड़ने वाले अत्यधिक दबाव को भी कम किया जा सकता है। ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा के पीछे यही मंशा है। इस रूप में इसकी संरचनात्मक प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता।

सितंबर, 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित कर उसे इसकी व्यवहार्यता बताने की जवाबदेही दी गई थी। समिति द्वारा ‘मैक्रोइकनॉमिक इंपैक्ट ऑफ हार्मोनाइजिंग इलेक्टोरल साइकल, एविडेंसेज फ्रॉम इंडिया’ नामक शोध पत्र के आधार पर यह संकेत दिया गया है कि एक साथ चुनाव से उच्च आर्थिक विकास को गति मिलेगी, और पूंजी व राजस्व पर व्यय में सरकारी निवेश अधिक होगा। निर्वाचन आयोग और अन्य अंशधारकों के साथ की गई वार्ताओं से प्रेरित होकर समिति ने जनता से इस विषय पर राय मांगी थी।

हाल ही में एक उत्साहवर्धक आंकड़ा सामने आया है। लगभग 81 प्रतिशत सुझाव ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के पक्ष में है। निश्चित रूप से सरकार के लिए यह एक बड़ा प्रेरणा स्रोत होगा। लेकिन अब भी मंजिल पाना बहुत सरल नहीं है। एक ओर इसका विरोध करने वालों द्वारा उठाए गए मुद्दों को संबोधित करना आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर इसके सांविधानिक पक्षों पर गौर करना भी अनिवार्य है। ध्यातव्य हो कि 1967 तक देश में एक साथ चुनाव कराए जाते रहे थे, लेकिन 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की विधानसभाओं के भंग हो जाने के कारण यह परंपरा टूट गई। इस पूरी प्रक्रिया में यही मुद्दा सबसे गंभीर है। इसके अतिरिक्त, इतने बड़े पैमाने पर एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम, लॉजिस्टिक समर्थन और अन्य अवसंरचनात्मक सुविधाओं की उपलब्धता भी एक बड़ी चुनौती होगी।

गौरतलब है कि इस प्रस्ताव को सांविधानिक आधार देना सबसे महत्वपूर्ण होगा, जो भारत में संविधान की सर्वोच्चता और विधि के शासन के प्रचलन के अनुरूप होगा। इसके लिए कई सांविधानिक प्रावधानों में संशोधन की आवश्यकता होगी। सबसे पहले, अनुच्छेद 83 और 85, जो क्रमशः संसद के सदनों की अवधि और राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा को भंग करने से संबंधित है, में संशोधन की आवश्यकता है। इसी प्रकार, अनुच्छेद 172, जो राज्य विधानमंडलों की अवधि से संबंधित है और अनुच्छेद 174 राज्य विधानमंडलों के विघटन से संबंधित है, में भी संशोधन आवश्यक है। एक और प्रावधान, जिसमें संशोधन की आवश्यकता होगी वह अनुच्छेद 356 है, जो राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने से संबंधित है। ध्यातव्य हो कि एक संसदीय समिति ने भारत के निर्वाचन आयोग सहित विभिन्न हितधारकों के परामर्श से एक साथ चुनाव के मुद्दे की जांच की थी। इन प्रावधानों में सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद 83 है, जिसमें भारत के परिसंघीय ढांचे के स्थायित्व के लिए राज्यसभा को तो स्थायी सदन बनाया गया है, लेकिन संसदीय तंत्र और प्रतिनिधि लोकतंत्र की व्यावहारिकता के लिए लोकसभा का पांच वर्षीय कार्यकाल उल्लिखित है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि यदि इसके विघटन पर रोक लगाने का प्रावधान किया जाएगा, तो यह संविधान के विरुद्ध होगा। ऐसी स्थिति में यदि कार्यकाल के पूर्व विघटन की घटना होती है, तो चुनावी चक्र बाधित हो जाएगा। यही स्थिति राज्यों के स्तर पर भी है। उच्च स्तरीय समिति के सामने इसी समस्या का समाधान सबसे महत्वपूर्ण है।

अब यदि विरोधी पक्ष के तर्कों पर बात की जाए, तो यह कहा गया है कि ऐसा कोई भी कदम संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन होगा। साथ ही, इस प्रक्रिया से भारत में क्षेत्रीय हितों की अनदेखी होने की आशंका है, जो परिसंघीय अभिलक्षणों का विरोध करेगी। संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन का तर्क प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि चुनाव एक साथ हों या अलग-अलग, किसी भी स्थिति में वह प्रतिनिधि लोकतंत्र के ही अनुरूप है। सबसे बड़ी बात यह है कि पहले भी जब तक ऐसे चुनाव होते थे, तो आने वाले समय में भी कुछ संशोधनों के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है।

दूसरी ओर, जहां तक परिसंघीय ढांचे और क्षेत्रीय हितों का प्रश्न है, इनके भी प्रभावित होने की आशंका नहीं है, क्योंकि यह प्रक्रिया केवल चुनावों के संचालन के लिए है, न कि राजनीतिक दलों के विरुद्ध। क्षेत्रीय राजनीति संबंधित क्षेत्र के हितों के संरक्षण के लिए कटिबद्ध भी है और सक्षम भी। देखना केवल यह है कि जो सांविधानिक और कानूनी (लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और 1951) संशोधन आवश्यक हैं, उनमें तार्किकता का प्रयोग हो। अंत में, यह उल्लेख अत्यंत उपयुक्त है कि भारत का निर्वाचन आयोग इस बात के लिए तैयार है कि वह इस प्रक्रिया के अनुरूप कार्य करेगा, जो ऐसे प्रस्ताव की व्यावहारिकता बनाए रखे हुए है।

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