पुनर्जागरण की राजनीति.. लोकतंत्र में सबसे बड़े विश्वास मत का लाभ विजेता उठाता है, PM कर रहे नया प्रयोग
ट्रंप की लोकप्रियता के बावजूद, उनकी शैली के चलते ‘ट्रंपवाद’ बेशक तेजी से विकसित न हो पा रहा हो, लेकिन भारत में नरेंद्र मोदी दक्षिणपंथ का एक नया ही प्रयोग कर रहे हैं। वह विचारधारा के पुराने तर्कों और सांस्कृतिक पुरखों को तवज्जो देने के साथ भविष्य से संवाद भी कर रहे हैं।
राष्ट्र को विवादित भावनाओं में बांट देना चुनावों के दौरान आम है। लेकिन राष्ट्रीय आत्मा का संघर्ष वह होता है, जब राजनेता सत्ता की व्यर्थ लड़ाई के जरिये देशभक्ति की बहाली के लिए प्रयास करते हैं।21वीं सदी में इस विचार के सबसे परिचित खिलाड़ी असंतोष व स्वदेशीवाद का शोर मचाने वाले हलकों से आते हैं, और वे गौरवशाली अतीत की ओर वापसी को महानता की पूर्व शर्त बनाते हैं। यही वह पक्ष है, जो आमतौर पर धोखे के शिकार राष्ट्र और उसके निर्वाचित सहयोगियों के खिलाफ जीतता है। ब्रेग्जिट से प्रभावित ब्रिटेन और ‘ट्रंपवाद’ से प्रभावित अमेरिका इसके सटीक उदाहरण हैं कि कैसे एक काल्पनिक राष्ट्र वर्तमान दुर्दशा के खिलाफ विद्रोह का योग्य गंतव्य बन जाता है।
ब्रेग्जिट और ट्रंपवाद, दोनों आज खंडित विरासत हैं। ब्रेग्जिट के उत्तराधिकारी राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए वोट का प्रबंधन करने में विफल रहे हैं; उन्होंने जो हासिल किया है, वह आर्थिक ठहराव और राजनीतिक अस्थिरता है। दुखद है कि राष्ट्रीय आत्मा के लिए संघर्ष राजनीतिक नश्वरता के विरुद्ध संघर्ष बन गया है। और ट्रंप की लोकप्रियता में वृद्धि के बावजूद ट्रंपवाद मजबूत नहीं हुआ। एक बार सत्ता में आने के बाद, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था में उनकी सफलता उनकी व्यक्तिगत शैली के नीचे दब गई। हार के बाद वह अमेरिकी राष्ट्रपति के इतिहास में साजिश के सर्वोच्च दूत बन गए। जैसा कि दूसरी बार सत्ता में उनका आना अपरिहार्य लग रहा है, ट्रंप अब भी बिगड़ैल सांड की भूमिका निभा रहे हैं। ट्रंप के रहते ट्रंपवाद के विचार के विकास की कोई संभावना नहीं दिखती। ये उदाहरण लोकप्रिय भावना और राजनीतिक यथार्थवाद के बीच के अंतर को सामने लाते हैं।
राष्ट्रीय आत्मा के लिए संघर्ष मुक्ति की त्रुटिपूर्ण राजनीति के रूप में समाप्त होता है। मूल आदर्श की मृत्यु के बाद राष्ट्र के झूठे पुनर्स्थापकों का उदय होता है। लेकिन अगर भारतीय राजनीति पर नजर डालें, तो यह पैटर्न टूट जाता है। यहां राष्ट्रीय आत्मा का संघर्ष अपने दूसरे दशक में प्रवेश करता है। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव को राष्ट्रवाद की बहाली के जनमत संग्रह में बदल दिया। उन्होंने कभी भी खुद को दूसरे प्रधानमंत्री उम्मीदवारों के रूप में नहीं देखा, जिनकी सीमा अगले पांच वर्षों से आगे नहीं बढ़ती। मोदी ने भारत को आधुनिक रूप देने वाले और राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने वाले नेता के रूप में चुनाव जीता और अपना लक्ष्य काल्पनिक अतीत में नहीं खोजा, बल्कि भविष्य से संवाद किया।
यह सांस्कृतिक तर्क है, जिसमें दक्षिणपंथ आम तौर पर हार जाता है, पर मोदी के लिए यह तर्क भी नहीं है। यह होने की स्थिति है। राष्ट्रीय आधुनिकीकरण की अपनी परियोजना को सबसे स्थायी क्षेत्र यानी भारत के गरीबों तक ले जाने के लिए उन्हें कभी भी हिंदू विशेषण की जरूरत महसूस नहीं हुई। भारत के सांस्कृतिक पुरखों को बार-बार याद करने की जरूरत नहीं थी, और यह केवल उन लोगों के लिए विवाद का विषय था, जो अब भी मूल राष्ट्र निर्माताओं के उपदेशों में डूबे हुए थे। मोदी ने राष्ट्र को सीमित करने वाले स्थापत्यों को नष्ट करना अभी खत्म नहीं किया है, और इसलिए 2024 में उनकी लड़ाई राष्ट्र की पुनर्स्थापना के लिए है।
विकल्प में एक गठबंधन है, जिसे अपनी भारतीयता को रेखांकित करने के लिए एक संक्षिप्त नाम की जरूरत है। जब वे लुप्तप्राय भारत का रोना रोते हैं, तो अनिवार्य रूप से उनका मतलब ऐसे भारत से होता है, जो भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, उप-राष्ट्रवाद और वंशानुगत शक्ति में संलिप्त था-एक ऐसा भारत, जहां धर्मनिरपेक्ष आदर्श का मुख्य आकर्षण अल्पसंख्यक बस्तियां और राष्ट्रीय निषेध है। महागठबंधन का प्रत्येक सदस्य एक ऐसे भारत का प्रतिनिधित्व करता है, जो योग्यता और आधुनिकता पर बने समाज के आवेगों और दृष्टिकोण से बहुत दूर है।
लुप्तप्राय भारत के उनके रुदन को बौद्धिक समर्थन मिलता है, और ऐसे समय में, जब असहमति किसी कारण की तलाश में हो, यह आश्चर्य की बात नहीं है। जो शायद यह बताता है कि असहमत लोगों के एक वर्ग के लिए अघोषित आपातकाल का आह्वान स्वाभाविक क्यों है। यह असहिष्णुता या वैचारिक हिंसा की किसी भी अभिव्यक्ति का विरोध करने के लिए फासीवाद शब्द का इस्तेमाल करने जितना ही अनैतिहासिक है। काले अतीत का इस तरह आकस्मिक सहारा अमानवीयता की यादों को कमतर कर देता है। अघोषित आपातकाल की साझा चिंता भारत की सांविधानिकता का सबसे निर्लज्ज उल्लंघन है।
भारत उन लोगों के लिए एक चुनावी निरंकुश शासन है, जो ताकत और दृढ़ संकल्प दिखाने वाली मोदी की दृढ़ विश्वास की राजनीति को गलत समझते हैं। वे अपना हाई कमान स्वयं हैं और अपने इस विश्वास के लिए लड़ते हैं कि सत्ता ही परिवर्तन लाती है। यह अपने आप में एक ऐसे देश में बड़ा सांस्कृतिक बदलाव है, जो सत्ता के लिए संघर्ष को नैतिक महत्व देता है, जिसे सत्ता के खिलाफ संघर्ष से कमतर बना दिया गया है।
जो लोग मोदी के भारत पर संविधानेतर होने का आरोप लगाते हैं, वे इसे निरंकुशता मानने की गलती करते हैं। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को ही लीजिए, जिसे अब भी कुछ लोग बहुसंख्यकवादी अपराध मानते हैं। हम इसे राष्ट्रीय एकता के उच्च उद्देश्य के लिए क्रूर सांविधानिकता के रूप में क्यों नहीं देख सकते? यदि भारत में जल्द ही समान नागरिक संहिता बनने जा रही है, तो यह केवल सांविधानिक समानता के आदर्शों पर खरा उतरने के लिए होगा। संस्थानों को कमजोर किए जाने की बात भी गलत है। भारत में न्यायाधीशों का चयन भी तो न्यायाधीशों द्वारा किया जाता है। पूछा जा रहा है कि एक विपक्षी मुख्यमंत्री को जांच और कारावास क्यों दिया गया? क्या हम इसके बजाय ‘आप’ की अराजनीतिक राजनीति की मजबूर करने वाली कहानी नहीं बता सकते। गांधीवादी प्रतिरोध की कोख से जन्मा आंदोलन कैसे भ्रष्ट लोगों का संघ बन गया है? ऐसा लगता है कि लुप्तप्राय भारत में हितधारकों का एक अलग समूह है, और मोदी निश्चित रूप से उनमें नहीं हैं।
शायद यह अब राष्ट्रीय आत्मा की लड़ाई भी नहीं रही। क्या वह लड़ाई पहले ही नहीं जीती जा चुकी है? और विजेता अब भी लोकतंत्र में सबसे बड़े विश्वास मत का लाभ उठाता है, क्योंकि सत्ता ने भविष्य के लिए अभियान को और तेज कर दिया है। शुक्र है कि अतीत की याद दिलाता इंडिया (INDIA) केवल संक्षिप्त शब्द है।