परिवार से रिश्ता पुराना है, प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही नेहरू-गांधी की थकी हुई विरासत
भारतीय राजनीति का परिवार से उतना ही पुराना रिश्ता है, जितना देश की स्वतंत्रता का। नेहरू-गांधी परिवार भले ही दुनिया के सबसे स्थायी परिवार के रूप में बचा है, लेकिन इसकी थकी हुई विरासत प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है। भारतीय राजनीति इतनी उर्वर है कि अब भी कई परिवार सत्ता पर पकड़ बनाए हुए हैं।
परिवार मायने रखता है। एक बुनियादी सामाजिक इकाई के रूप में परिवार राजनीति में विचारधारा को स्थायित्व की भावना देता है, जबकि सिद्धांत केवल निश्चिंतता प्रदान करते हैं। एक ऐसे युग में, जब दृश्य एवं अन्य संवेदी संचार चुनाव अभियान में लोगों की धारणाओं को प्रभावित करते हैं, हर कोई अपनी आदर्श पारिवारिक तस्वीर को भुनाना चाहता है। यह उन समाजों में अधिक होता है, जहां राजनीति में सार्वजनिक एवं निजी, दोनों तत्व घुले-मिले होते हैं।
राजनीति में सत्ता विरासत के रूप में परिवार से भी मिलती है। प्रतिभा और लोकप्रियता से ज्यादा रक्त-संबंध मजबूत बन जाता है। यह परिवार ही है, जो मायने रखता है, विचारधारा नहीं। राजनीतिक वंशवाद परिवार को सर्वोच्च एवं उन्नत संस्था के रूप में सम्मान देता है। यह उन परिवारों में होता है, जहां भरोसे का सबसे सच्चा स्वरूप लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति के विरुद्ध विकसित और संरक्षित किया जाता है।
भारतीय राजनीति का परिवार से उतना ही पुराना रिश्ता है, जितना देश की स्वतंत्रता का, और अगर कोई एक संविधानेतर संस्था है, जिसने लोकतंत्र के रूप में राष्ट्र की यात्रा को परिभाषित किया है, तो वह परिवार है। नेहरू-गांधी परिवार भले ही दुनिया के सबसे स्थायी परिवारों के रूप में बचा हो, इसके अंतिम हांफते दिन लगातार भारतीय राजनीति को एक रंगमंच प्रदान करते रहे हैं, जिसमें एक थकी हुई विरासत अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष करती है। भारत की राजनीतिक जमीन इतनी उर्वर है कि विभिन्न आकार एवं प्रभाव वाले परिवार अब भी विशेषाधिकार के रूप में सत्ता पर पकड़ बनाए हुए हैं। वंशावली जितनी लंबी होगी, सत्ता का अराष्ट्रीयकरण उतना ही आसान हो जाएगा।
एक प्रांतीय परिवार के बुजुर्ग ने परिवार न होने के लिए प्रधानमंत्री को दोषी ठहराते हुए कहा : ‘अगर नरेंद्र मोदी का अपना परिवार नहीं है, तो हम क्या कर सकते हैं? फिर उन्होंने मोदी के एक सच्चे हिंदू पुत्र होने पर भी सवाल उठाया। प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह बयान लालू प्रसाद यादव जैसे व्यक्ति की तरफ से आया है, जो बताता है कि भारतीय राजनीति में पारिवारिक मूल्य कैसे काम करते हैं।
लोहिया विचारधारा के पुराने समाजवादी लालू प्रसाद कांग्रेस विरोध की अपनी मूल प्रवृत्ति से काफी दूर हो गए हैं। बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिहार को ‘बुरे प्रदेश’ का पर्यायवाची बना दिया और ‘जंगलराज’ उनके शासन का आदर्श संस्करण था। और अंत में, वह स्वयं समाजवादी हृदयस्थल की त्रासदी का एक गिरा हुआ पात्र बन गए। उन्होंने कई भूमिकाएं निभाईं, अणे मार्ग के सशक्त चरवाहे से लेकर भारतीय राजनीति के पहले विदूषक तक, जो चुटकुले की चुनावी ताकत को समझते थे। भले ही अंततः चुटकुले भी उन्हीं पर बने। उन्होंने भारत की पहली किचेन कैबिनेट के निर्माता की जो भूमिका निभाई, वह पूर्णता लिए थी। जिस चीज ने उनके जीवन को संतुष्ट किया, वह उनके वंश की ताकत थी, जिसकी उन्होंने जेल और अन्य जगहों पर भी अपनी विरासत की तरह देखभाल की। वह पितृपुरुष (लालू) आज स्वयं को पारिवारिक मूल्यों के योग्य उपदेशक के रूप में देखते हैं।
यह बात शुरू से ही गलत है कि मोदी का अपना जैविक परिवार नहीं है। यदि लालू प्रसाद का आशय राजनीति में पारिवारिक व्यक्ति के होने से है, तो शायद मोदी अयोग्य हैं, क्योंकि उनके परिवार का कोई भी सदस्य सत्ता में साझेदार नहीं है। मोदी ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया : ‘मेरा जीवन खुली किताब है। एक सौ चालीस करोड़ भारतीय मेरे परिवार हैं। आज इस देश की करोड़ों माताएं एवं बहनें मोदी का परिवार हैं। इस देश का हर गरीब आदमी मेरा परिवार है। जिसका कोई नहीं है, वह मोदी का है और मोदी उनके हैं।’
पारिवारिक मूल्यों को नष्ट करने वाले सिर्फ एक बयान के साथ, जिसे लालू प्रसाद और विपक्ष के उनके ज्यादातर साथी अपने राजनीतिक उद्यम में बढ़ावा देते हैं, मोदी ने परिवार की साख को एक ऐसा अर्थ दिया, जिसे भारत में कोई दूसरा राजनेता दोहराने के योग्य नहीं है। प्रधानमंत्री की पारिवारिक व्यक्ति के रूप में आत्म-छवि हमेशा की तरह उन्हें राजनीति के एक ऐसे दायरे में ले जाती है, जहां परम राष्ट्रवादी के लिए व्यक्तिगत अपेक्षाएं खत्म हो जाती हैं। यदि राष्ट्र लोगों की सामूहिक कल्पना है, तो केवल भावनाओं की उच्च खुराक ही इसे तत्काल और अंतरंग अनुभव बना सकती है। यह मोदी के लिए सबसे फायदेमंद भी है।
सत्ता में भारतीय पारिवारिक व्यक्ति का यह आदर्श संस्करण उन्हें उस राजनीतिक संस्कृति से अलग करता है, जिसने ‘परिवार पहले’ को संस्थागत बना दिया है। इसका सबसे स्पष्ट प्रतिनिधि एक ऐसी भूमिका निभा रहा है, जिसके बारे में उसके अलावा हर कोई जानता है, वह राजनीति में गलती से आ गया है। उसने पहले ही दिखा दिया है कि दुनिया के सबसे पुराने राजनीतिक परिवार में से एक ने खुद को मोदी के भारत में निरर्थक बना लिया है। कोई भी आह्वान इस क्षेत्र में राहुल के लिए जगह नहीं बना सकता है, जहां वह लगातार भारत के साथ बेहतर संवाद में असमर्थता या मोदी के खिलाफ तर्क देने पर जोर देते हैं। वह विपक्षी गठबंधन के प्रमुख बने हुए हैं, जो केवल यह दर्शाता है कि मोदी के खिलाफ खड़े सहयोगियों को इस परिवार ने कैसे कहीं नहीं पहुंचने का रास्ता दिखाया है।
मोदी का पारिवारिक मूल्य उस राजनीतिक संस्कृति को चुनौती देता है, जहां परिवार का मतलब निजी सशक्तीकरण है। हरेक भारतीय को अपने परिवार में शामिल करके उन्होंने अपना परिवार बनाया है, जो ‘इंडिया’ गठबंधन पर भारी पड़ता है, जो खुद अपनी घटती राष्ट्रीय साख से अवगत है। मोदी ने जो अनकहा छोड़ दिया, वह यह है : सत्ता लोकतंत्र से अर्जित लाभ नहीं है, बल्कि प्रत्येक भारतीय की साझा संपत्ति है।
आज लोकतंत्र में मोदी को जो सबसे लोकप्रिय राजनेता बनाता है, वह है सत्ता के साथ उनका रिश्ता। पांच साल पहले सत्ता ने उन्हें भारत का सबसे कर्तव्यनिष्ठ चौकीदार बना दिया था, जिसका ज्यादातर भारतीयों ने अनुमोदन किया। आज वही भारत के लोग, संभवतः उससे भी अधिक स्वयं को मोदी का परिवार के रूप में पहचानते हैं। भारतीय बुजुर्ग (लालू) के पारिवारिक मूल्य इंडिया गठबंधन की वास्तविकता को तेजी से उजागर करते हैं, जो पारिवारिक बोझ के अलावा भी कई बोझों से दबा हुआ है।