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उत्तराखंड

हम अकेले क्यों हो रहे हैं, बहुत कष्टकारी है उत्तरकाल की यह ‘गरीबी’

वर्तमान में सुखवाद चरम पर है। मैं, मुझे, मेरा और मेरी जिंदगी फैशन में है। समायोजन को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अवज्ञा और अनादर या वाद-विवाद को आधुनिक माना जाता है। 

हमें स्कूलों में पढ़ाया गया कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम प्राणी तो बने रहे, पर बहुत ही कृत्रिम, भौतिकवादी और आत्मकेंद्रित बन गए। इसका दोषी तकनीक, लालच और बेसब्री या फिर तीनों के संयोजन को मान सकते हैं। संयुक्त परिवार से एकल और फिर संक्षिप्त परिवार बन गए। संयुक्त परिवार का अलग ही रुतबा और फायदा था, जहां मजबूत सहयोगी तंत्र और भावनात्मक जुड़ाव था। बुजुर्गों के पास परिवार को देने के लिए ज्ञान था। तीस-चालीस वर्ष के युवा ऊर्जा बांटते, तो बच्चों की हंसी और मासूमियत परिवार में रौनक बिखेर देती थी।

वर्तमान में सुखवाद चरम पर है। मैं, मुझे, मेरा और मेरी जिंदगी फैशन में है। समायोजन को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अवज्ञा और अनादर या वाद-विवाद को आधुनिक माना जाता है। बच्चे विदेश चले जा रहे हैं। उनके पास माता-पिता के लिए समय नहीं है। कुछ अपने ही देश में दूसरे शहरों में रहने लगे हैं, उनके पास भी समय नहीं है। माता-पिता बच्चों से जुड़े रहना चाहते हैं, लेकिन बच्चे नहीं।

तीन-चार दशक पहले भारत में तलाक कम होते थे। समाज इसे कतई स्वीकार नहीं करता था। लोग वैवाहिक जीवन के पचास वर्ष साथ रहकर गुजार देते थे। पर आजकल यह कहना फैशन है कि हमने अपनी शादी को बचाए रखने की बहुत कोशिश की, लेकिन निभ न सकी। तर्क दिया जाता है कि विवाह बेमेल था। बेमेल विवाह पहले भी होते थे, पर मेल-मिलाप की भरसक कोशिश की जाती थी।

ज्यादा कमाने का लालच हमारे युवा जोड़ों को दूसरे देशों या शहरों में ले गया। लेकिन उनके माता-पिता अपने मूल देशों या कस्बों में अकेले रह गए। एकल परिवार का विचार सबसे पहले पश्चिम में आया, जो धीरे-धीरे पूर्व तक जा पहुंचा, जहां संयुक्त परिवार की जीवन-शैली थी। युवा जोड़ों को खुद की आजादी और चिंतामुक्त जीवन तो मिला, लेकिन अभिभावकों से मिलने वाला भावनात्मक लगाव छिन गया। हालांकि अब अमेरिकियों की भी सोच बदल रही है और वे संयुक्त परिवार में रहना चाहते हैं।

इस वजह से भारत में वृद्धाश्रमों की वृद्धि हुई है। इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल करने वालों को सब्सिडी दी जानी चाहिए। वृद्धाश्रम का नाम ही डरावना होता है। बेहतर और उज्ज्वल जीवन की तलाश में पूरा जीवन निकल जाता है। उम्र बढ़ने के साथ मनुष्य बुद्धिमान और भावुक हो जाता है और कई बार इतना भावुक हो जाता है कि यह सोचने लगता है कि यह सब किसके लिए कमाया।

सामूहिक जीवन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हम अकेलेपन से बच जाते हैं। पश्चिमी समाज आज बहुत अकेला है। अकेलापन बहुत बड़ा दुश्मन है। वरिष्ठ नागरिक इसका प्रतिदिन सामना करते हैं। उनके पास धन और ज्ञान तो खूब है, लेकिन इसे साझा करने के लिए कोई नहीं। समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। अलग-अलग समूहों की समस्याएं भी भिन्न-भिन्न हैं।

मदर टेरेसा ने कहा है कि सबसे भयानक गरीबी अकेलापन और प्यार की भावना का न होना है। बच्चों या समाज की ओर से त्यागे गए, आर्थिक रूप से कमजोर लोग आश्रय से ज्यादा अपने अस्तित्व के लिए भटकते हैं। संतोष की बात है कि ऐसे लोगों के लिए एनजीओ और धर्मार्थ संगठन काम करते हैं। जिनके पास पैसा है, वे सेवानिवृत्ति के बाद आरामदायक जीवन के लिए भुगतान करके फाइव स्टार सुविधा हासिल करते हैं। एक चलन यह भी है कि समान विचारधारा वाले बुजुर्ग एक बड़ा-सा घर साझा करते हैं, जिससे बिजली और किराये जैसे खर्च में राहत मिलती है। साथ ही वे एक-दूसरे की देखभाल भी कर सकते हैं।

कुछ महिला और पुरुष अकेले ही रहना चाहते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो एक-दूसरे का साथ तो चाहते हैं, लेकिन साथ रहेंगे नहीं। इसे अलग ढंग से देखें, तो अकेलापन दूर करने का एक प्रेमालाप है। दुनिया भर की सेना या सशस्त्र बलों के अधिकारियों का आधा जीवन मेस में ही गुजर जाता है। सेना में अधिकारियों की रैंक के अनुसार मेस होती है। समान आयु वालों के साथ भोजन करते हैं। इसलिए हम वरिष्ठ नागरिकों की आवास इकाइयों को होस्टल या मेस के रूप में देख सकते हैं। जापानी लेखक हारुकी मुराकामी ने लिखा है कि लोगों को इतना अकेला क्यों रहना पड़ता है? इसका मतलब क्या है? इस दुनिया में लाखों लोग अपनी संतुष्टि के लिए दूसरों की ओर देख रहे हैं, फिर भी खुद को अलग-थलग कर रहे हैं। क्यों? क्या यह धरती मनुष्य के अकेलेपन को दूर करने के लिए है?

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