उत्तराखंड मे असीमित वृक्ष पातन से हो रही पर्यावरणीय क्षति मानव अस्तित्व पर भारी संकट-सुशील त्यागी
उत्तराखंड मे असीमित वृक्ष पातन से हो रही पर्यावरणीय क्षति मानव अस्तित्व पर भारी संकट का कारण बनता जा रहा है,पर्यावरणीय क्षति की रोकथाम हेतु ही वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 बनाया गया. किंतु इससे जहाँ वृक्ष पातन पर रोक कम और काश्तकारों का शोषण अधिक हो रहा है वही वृक्षारोपण हतोत्साहित भी हो रहा है।इस सम्बन्ध मे अखिल भारतीय समानता मंच के सचिव जे पी कुकरेती ने बयान जारी करते हुए कहा कि काश्तकार को अपने ही लगाए गए वृक्षों को कठिन समय में भी अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रयोग में लाने के लिए अत्यधिक परेशानी उठानी पड़ती है. निश्चित रूप से विभागीय प्रक्रिया इसके लिए दोषी है और इसे समय बद्ध कर आसान किया जा सकता है. किन्तु मेरा मानना है कि मूल काश्तकारों को अपनी भूमि से और ढाई सौ वर्ग मीटर क्षेत्रफल के प्लाटों पर भवन निर्माण को इससे पूर्णतया मुक्त किया जाना चाहिए. इसके लिए वृक्ष पातन को मुक्त कर प्रतिस्थानी वृक्षारोपण आवश्यक हो.
काश्तभूमि से वृक्ष पातन के व्यवसाय को पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि काश्तभूमि से कोई भी वृक्ष पातन व्यावसायिक लाभ हेतु न हो. भू उपयोग का स्वरूप अपरिहार्य होने पर ही परिवर्तित हो. और इसके गलत जारी किए जाने हेतु कठोर दण्ड दिया जाए. वृक्ष संरक्षण अधिनियम का उल्लंघन करने पर ₹5000 जुर्माने की राशि को कम से कम 50,000 किया जाए.