इस चुनाव में नहीं दिखाई देंगे माफिया के चेहरे… पहले अपराधियों की बोलती थी तूती
यूपी की सियासत में संभवतः यह पहला आम चुनाव होगा, जिसमें माफिया के चेहरे नहीं दिखाई देंगे। राजनीति और अपराध के गठजोड़ का फायदा जहां सियासी दल उठाते थे, वहीं माफिया भी अपनी आपराधिक जमीन को मजबूत करने के साथ अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा करते थे।
यूपी की सियासत में लंबे समय तक तमाम सियासी दलों में बाहुबलियों-माफिया का बोलबाला रहा। पर, बदले हालात में अब ऐसे माफिया और बाहुबली नेताओं को सियासत में ठौर नहीं मिल रही है। खास तौर पर मौजूदा चुनाव में प्रत्याशियों की फेहरिस्त देखें तो आपराधिक पृष्ठभूमि के तमाम नेताओं की धमक इस बार के चुनाव में देखने को नहीं मिलेगी।
2017 के बाद सियासत में मजबूत मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होने वाले बड़े-बड़े माफिया कानून का शिकंजा कसने के बाद लुप्त होने लगे। संभवतः ये पहला आम चुनाव होगा, जिसमें माफिया का चेहरा नहीं दिखाई देगा।
राजनीति और अपराध के गठजोड़ का फायदा जहां सियासी दल उठाते थे, वहीं माफिया भी अपनी आपराधिक जमीन को मजबूत करने के साथ अपना आर्थिक साम्राज्य खड़ा करते थे। राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत जहां गोरखपुर के हरिशंकर तिवारी से होना माना जाता है।
वहीं, पश्चिम में डीपी यादव सूत्रधार थे। इसके बाद तो राजनीति में अपराधियों को शामिल करने की होड़ सी मच गई। मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, बृजेश सिंह से लेकर विजय मिश्रा, धनंजय सिंह, रिजवान जहीर, अमरमणि त्रिपाठी जैसे तमाम आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सियासी चोला ओढ़ने के लिए इन दलों का सहारा लेने लगे।
तूती बोलती थी अपराधियों की
लोकसभा, विधानसभा ही नहीं, निकाय चुनावों में भी मुस्लिम मतदाताओं को साधने के लिए हर दल अतीक अहमद जैसे माफिया पर निर्भर रहे। अतीक को पहले सपा ने अपनाया, तो बाद में अपना दल और कांग्रेस ने भी सियासी फायदे के लिए उसका इस्तेमाल किया। इसका फायदा अतीक ने भी उठाया।
- इसी तरह मुख्तार अंसारी जैसे अपराधी को भी सियासी दलों ने सिर आंखों पर बैठाया। पूर्वांचल में अल्पसंख्यक वोटों के आकर्षण ने सियासी दलों को मुख्तार से दूर नहीं जाने दिया।