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उत्तराखंड

देवप्रयाग…दशरथ के नाम से लेकर सीता की विदाई स्थल तक, यहां भगवान राम से जुड़ी हैं कई मान्यताएं

देवप्रयाग में श्री रघुनाथ मंदिर स्थित है। मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा किया गया था। मंदिर को नागर शैली से बनाया गया है।संगम नगरी देवप्रयाग से रघुकुल का गहरा नाता रहा है, जिसकी महिमा रघुनाथ मंदिर और देवप्रयाग के आसपास स्थित स्थान और राम से जुड़ी मान्यताओं से दिखती है। देवप्रयाग श्रीराम के पिता दशरथ के नाम से दशरथांचल से लेकर सीता की विदाई स्थल (विदाकोटी) स्थित है।

देवप्रयाग में श्री रघुनाथ मंदिर स्थित है। मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा किया गया था। मंदिर को नागर शैली से बनाया गया है। श्री रघुनाथ मंदिर के पुजारी समीर भट्ट ने बताया कि रावण वध के बाद भगवान श्रीराम ने ब्राह्म हत्या के दोष से मुक्ति पाने के लिए यहां तपस्या की थी। भगवान श्री राम एकल मूर्ति के स्वरूप में विराजमान है।

‘स्कंद पुराण’ के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षों तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया है। मान्यता है कि मुनि देव शर्मा के 11 हजार वर्षों तक तप करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए।

उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया और रामावतार में देवप्रयाग आकर उसे निभाया भी। कहते हैं कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया। यहां बने रघुनाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए 108 सीढ़ियां हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति हर सीढ़ी पर राम नाम जपकर जाता है उसकी मनोकामना पूरी होती है। 

भगवान विष्णु के पांच अवतारों से जुड़ी है संगम नगरी की मान्यता
देवप्रयाग। संगम नगरी से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है, जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए उसे वामन गुफा कहते हैं। देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया।

इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं। यह स्थान जटायु की तपोभूमि के नाम से जानी जाती है।

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