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उत्तराखंड

उत्तर बनाम दक्षिण का पैंतरा, क्षेत्रीय दलों के बदलते समीकरणों के कारण बदल रही है जमीनी हकीकत

इतिहास बताता है कि दक्षिण भारत ने हमेशा से गांधी परिवार को समर्थन दिया है। लेकिन अब क्षेत्रीय दलों के बदलते समीकरणों के साथ जमीनी वास्तविकता बदल रही है। ऐसे में, कथित उत्तर बनाम दक्षिण का मुद्दा भाजपा को रोक सकेगा, इसमें संदेह है।

कर्नाटक और तेलंगाना के चुनावों के बाद भाजपा के खराब प्रदर्शन और कांग्रेस की बड़ी सफलता के लिए उत्तर और दक्षिण भारत की राजनीतिक संस्कृति के अंतर को जिम्मेदार माना गया था। तब से यह तर्क दिया जाने लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के मुद्दे और भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति दक्षिण में नहीं चल सकती। इस आख्यान का इस्तेमाल लोगों को यह समझाने के लिए किया गया कि दक्षिण की 130 लोकसभा सीटों पर भाजपा आसानी से कब्जा नहीं कर सकती, चाहे प्रधानमंत्री मोदी कितना भी जोर लगा लें।

यह ऐतिहासिक रूप से सच है कि आपातकाल के बाद 1977 में जब इंदिरा गांधी का पतन हुआ था, तब कांग्रेस को दक्षिण भारत में ही शरण मिली थी। यहां तक कि 2014 और 2019 में जब कांग्रेस सबसे खराब स्थिति में पहुंच गई, तब भी दक्षिण भारत ने गांधी परिवार को मजबूत शरण दी थी। इससे भी पहले, जब 2004 और 2009 में कांग्रेस ने केंद्र में वापसी की कोशिश की, तो दक्षिण के मतदाताओं ने भरपूर समर्थन दिया था। लेकिन आज इस बात में संदेह है कि दक्षिण में वैसी ही स्थिति बनी हुई है, क्योंकि जमीनी वास्तविकता बदल रही है। दक्षिण में क्षेत्रीय दलों की भूमिका प्रमुख होती है।

निस्संदेह कर्नाटक एवं तेलंगाना की जीत ने कांग्रेस को बेहद जरूरी गतिशीलता प्रदान की है। फिर भी कांग्रेस दक्षिण को हल्के में नहीं ले सकती। अब उसे कई नई और चतुर क्षेत्रीय पार्टियों से जूझना होगा। भाजपा ने भी मतदाताओं तक पहुंचने की कोशिश नहीं छोड़ी है। भाजपा उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपने चरम पर पहुंच चुकी है, इसलिए प्रधानमंत्री दक्षिण में दृढ़तापूर्वक प्रयास कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले दो महीने में दक्षिण भारत की चार विस्तृत यात्राएं की हैं। चुनाव की घोषणा होने पर वह दक्षिण में और ज्यादा प्रचार करेंगे। विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद कर्नाटक में अब भी भाजपा के लिए काफी संभावनाएं हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 में से 25 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस मात्र एक सीट जीत पाई थी। अब सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि कांग्रेस विधानसभा चुनाव की अपनी जीत (135 सीटों और 42.88 फीसदी वोट) और भाजपा के विधानसभा प्रदर्शन (66 सीट एवं 36 फीसदी वोट) का लोकसभा में कैसे उपयोग कर पाती हैं। देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) के साथ गठबंधन करके भाजपा ने पारंपरिक रूप से त्रिकोणीय मुकाबले को सीधी लड़ाई में बदल दिया है और उसे वोक्कालिगा और लिंगायत वोटरों के एकसाथ आने की उम्मीद है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य पार्टी का नेतृत्व येदियुरप्पा खेमे को सौंपकर एक सुधार किया है। माना जाता है कि ‘मोदी फैक्टर’ लोकसभा चुनावों में भाजपा को बढ़त दिला सकता है, क्योंकि प्रधानमंत्री राज्य के मतदाताओं के बीच लोकप्रिय बने हुए हैं।

तमिलनाडु में द्रमुक और कांग्रेस समेत उसके अन्य सहयोगियों के लिए एक परीक्षा होगी कि क्या वह पिछले लोकसभा चुनाव (39 में से 38 सीटें) और विधानसभा चुनाव (234 में से 159 सीटें) की तरह शानदार प्रदर्शन कर पाएगी। इस बार स्टालिन सरकार के खिलाफ भाई-भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार के आरोप हैं। सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के खिलाफ ड्रग तस्करों से मिलीभगत के कथित आरोप भी हैं। शीर्ष द्रमुक मंत्रियों के भ्रष्टाचार को दबाने के लिए सनातन धर्म के खिलाफ उदयनिधि का बयान भी द्रमुक के पक्ष में काम नहीं कर सका। मुख्य विपक्षी पार्टी अन्नाद्रमुक के. अन्नामलाई के नेतृत्व वाली भाजपा से पिछड़ गई है। अन्नामलाई के नेतृत्व में भाजपा को द्रमुक से लड़ाई करने के लिए नया जोश मिला है। अन्नाद्रमुक ने हाल ही में भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया है, जो अनुमानित रूप से 13 फीसदी अल्पसंख्यक मतों को द्रमुक से अलग करने के लिए था। इसके विपरीत मोदी ने काशी तमिल संगमम के जरिये भाजपा के हिंदुत्व और तमिल परंपरा के बीच एक भावनात्मक एवं सांस्कृतिक संबंध जोड़ने का प्रयास किया है।

तेलंगाना में कांग्रेस की रणनीतिक बढ़त और आत्मविश्वास से मोदी निश्चिंत हैं। भाजपा का दावा है कि तेलंगाना में ज्यादा बदलाव नहीं दिखेगा, क्योंकि कांग्रेस बीआरएस से अलग नहीं है, जो अब भी हार के सदमे से उबर नहीं पाई है। भाजपा के लिए सकारात्मक बात यह है कि वह विधानसभा चुनाव में तीसरे स्थान पर रही, जो कि उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वहां 17 में से चार सीटें जीती थीं। भाजपा-आरएसएस के आख्यान को जमीनी स्तर पर उतारने के लिए तेलंगाना का सामाजिक चरित्र अनुकूल है। वहां मुस्लिम आबादी 15 फीसदी के करीब है, जो निजामाबाद जैसे जिलों में केंद्रित है, जहां भाजपा ने 2019 में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता को हराया था। वहां मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी करती है।

आंध्र प्रदेश में भाजपा ने चंद्रबाबू नायडु की तेदेपा और पवन कल्याण की पार्टी के साथ गठबंधन किया है। वहां मुख्य लड़ाई जगमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा के बीच है। कांग्रेस को उम्मीद है कि कर्नाटक और तेलंगाना की जीत का उसे फायदा मिलेगा। वाईएसआर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए कांग्रेस ने वहां जगन मोहन की बहन वाईएस शर्मिला को पार्टी में शामिल किया है। ऐसी भी अटकलें हैं कि राज्य कांग्रेस अपने नए दुश्मन वाईएसआर कांग्रेस के खिलाफ तेदेपा से गठबंधन करेगी या अकेले चुनाव लड़ेगी। आंध्र प्रदेश में लोकसभा की 25 सीटें हैं और भाजपा आठ से दस सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है।

कांग्रेस को केरल से काफी उम्मीदें हैं, क्योंकि पिछली बार उसने 20 में से 15 सीटें जीती थीं। उसे उम्मीद है कि इस बार वह वामपंथियों को न्यूनतम स्तर पर ला देगी। 44 फीसदी मुस्लिम-ईसाई वोट बैंक कांग्रेस का पारंपरिक जनाधार है। इसी वजह से राज्य कांग्रेस की इकाई ने कांग्रेस कार्यसमिति के नेताओं को अयोध्या के राम मंदिर उद्घाटन में नहीं जाने के लिए कहा था।

मोदी के मार्गदर्शन में भाजपा ने भी हिंदू-ईसाई वोटों को लुभाने की भरपूर कोशिश की है। भाजपा की नजर 18 फीसदी ईसाई वोटों पर है और वह अपनी चुनावी संभावनाओं को बेहतर करने के लिए चर्च को नेताओं से संबंध बढ़ा रही है। तो क्या उत्तर-दक्षिण का जो अंतर पैदा किया जा रहा है, वह भाजपा को रोक पाएगा?

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