अब किताबों में ही पढ़ने को मिलती है ‘ओ’ से ओखली, विलुप्त होने के कगार पर पहाड़ी संस्कृति का प्रतीक
पहाड़ी संस्कृति की प्रतीक ओखली अब विलुप्त होने के कगार पर है। कभी पहाड़ में हर आंगन की शान हुआ करती थी ओखली। अब केवल किताबों में ही पढ़ने को मिलती है।
मशीनीकरण के दौर और बदलती जीवन शैली के चलते पहाड़ी संस्कृति की प्रतीक ओखली विलुप्त होने के कगार पर है। ऐसे में अब शायद किताबों में ही ओ से ओखली देखने को मिल पाएगी। खास खबर पहाड़ के गांव में अनाज कूटने की चक्की पहुंचने से अब गांवों में भी ओखली और मूसल की धमक कम सुनाई देती है।
दरअसल, पहाड़ में कुछ दशक पहले तक ओखली पहाड़ी संस्कृति की प्रतीक ओखली। संवाद हर घर आंगन की शान हुआ करती थी, जो अब गायब है। ओखली में कूटा चावल पौष्टिक और स्वादिष्ट माना जाता था, जो कि अब नहीं मिल पाता है। ओखली को शास्त्रों में भी पवित्र माना गया है।
आज भी गांव में होने वाले मांगलिक कार्यों के दौरान पूजन में ओखली के कूटे चावल को उपयोग में लाया जाता है। विवाह की महत्वपूर्ण हल्दी हाथ के रस्म की पवित्रता भी ओखली से जुड़ी हुई है। वहीं, आज भी हल्दी हाथ की रश्म को पूरा करने के लिए सुहागिन महिलाएं ओखली की पूजा और पिठाई करने के बाद कच्ची हल्दी कूटकर रश्म को पूरा करती हैं, जिसे शास्त्रों में पवित्र माना गया है। त्योहारों के समय मायके पहुंची बेटी को विदाई के समय ओखली में कूटे चावल से तैयार अरसे देने की परंपरा भी ओखली गायब होने से टूटती जा रही है।
ओखली के साथ गायब हो रही आंगन की रौनक
बजलाड़ी गांव के पूर्व प्रधान जयेंद्र सिंह राणा का कहना है कि ओखली महिलाओं को टीम वर्क के रूप में कार्य करने के लिए प्रेरित करती थी। महिलाएं जब सामूहिक रूप से ओखली में धान कूटती थी, तो उनका मनोरंजन होता था और वह एक दूसरे के साथ सुख-दुख भी साझा करती थी। जिससे घर के आंगन में चहल-पहल रहती थी। आज आंगन की रौनक भी गायब हो गई है।
डीजल से चलने वाली चक्कियां प्रदूषण का कारक
पर्यावरणविद् व आगाज फैडरेशन के अध्यक्ष जेपी मैठाणी ने बताया कि उनकी संस्था ने कुछ साल पहले लाटा गांव से गोपेश्वर चमोली तक एक सर्वे किया था। पहले क्षेत्रों में चूल्लू, भंगजीरे आदि का तेल भी ओखली में निकाला जाता था। गांव की डीजल व बिजली से चलने वाली चक्की पर निर्भरता कम थी, लेकिन अब ओखली का इस्तेमाल कम होने से डीजल चक्की अधिक देखने को मिल रही है। क्षेत्र
में 73 चक्कियां चल रही हैं, जो कि प्रदूषण का बड़ा कारक है।
ओखली में तैयार अनाज पौष्टिक होता था। साथ ही यह आपसी सहभागिता व जुड़ाव का माध्यम थी। ओखली में धान कूटने से शरीर भी स्वस्थ रहता था। अब मशीनों में तैयार अनाज से करीब 50 प्रतिशत तक पोषक तत्व गायब हो जाते हैं। ओखली को बचाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।