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उत्तराखंड

इस विवाद का कोई अंत नहीं…, क्षेत्रीय खींचतान के बीच सबसे पहले राष्ट्रीय हित पर विचार जरूरी

तमिलनाडु के नेता नियमित रूप से मांग करते रहे हैं कि कच्चातिवु को श्रीलंका से ‘वापस’ लिया जाए, क्योंकि इसे ‘बिना सोचे-समझे’ सौंपा गया था। उन्हें अदालत से भी यही जवाब मिला कि इसके मूल में एक समझौता है, जिसे पलटा नहीं जा सकता। पर इसमें सबसे ज्यादा नुकसान मछुआरों के अधिकारों का हो रहा है।

भारत और श्रीलंका के बीच स्थित कच्चातिवु द्वीप पर मौजूदा चुनाव के दौरान छिड़ी बहस के मुख्य निशाने पर मछुआरे हैं, जो महत्वपूर्ण वोटबैंक हैं। हैरानी की बात नहीं कि राजनीति ने दोनों पड़ोसी देशों के नाजुक रिश्ते और कूटनीति को इस बहस में खींच लिया है।

यह भाजपा बनाम कांग्रेस की लड़ाई है। तमिलनाडु में बारी-बारी से राज करने वाली द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच वास्तव में 1974 के समझौते पर कोई विवाद नहीं है, जिसके तहत कच्चातिवु श्रीलंका का हिस्सा बन गया। न तो द्रमुक, जो समझौते के समय भी राज्य की सत्ता में थी और अब भी सत्ता में है, और न ही अन्नाद्रमुक ने, जो अब विपक्ष में है, समझौते पर सवाल उठाया है, लेकिन वे मछुआरों के हितों की रक्षा करना चाहते हैं। अन्नाद्रमुक की ओर से विरोध हो सकता था, लेकिन वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में बहस में शामिल नहीं हुई, जिन्होंने इस मुद्दे पर कांग्रेस के खिलाफ हमला बोला था। लगभग 50 साल पहले इंदिरा गांधी की सरकार ने करुणानिधि के नेतृत्व में तमिलनाडु की सरकार से परामर्श करने के बाद इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था। अन्नाद्रमुक किसी राष्ट्रीय पार्टी से गठबंधन किए बिना अपने दम पर लोकसभा का चुनाव लड़ रही है। वह यही चाहती है कि उसकी संस्थापक नेता और चार बार की मुख्यमंत्री रह चुकीं जयललिता को मछुआरों के एकमात्र उद्धारकर्ता के रूप में देखा जाए।

इस मुद्दे पर फिर से बयानबाजी शुरू हो गई है। अन्नाद्रमुक के महासचिव एडापड्डी के. पलानीस्वामी ने विगत दो अप्रैल को कच्चातिवु की ‘पुनर्प्राप्ति’ के लंबित मामले में भाजपा को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर करने की चुनौती दी। इसे जयललिता ने दायर किया था। पलानीस्वामी ने मोदी सरकार को चुनौती दी कि केंद्र सुप्रीम कोर्ट को बताए कि कच्चातिवु द्वीप को सौंपने के मामले पर पुनर्विचार किया जाएगा। वह जानते हैं कि केंद्र श्रीलंका के साथ ताजा विवाद नहीं चाहता है। इसलिए हमारे पास बहस का तीसरा पक्ष है।

मौजूदा बहस तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के. अन्नामलाई के एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) जवाब को लेकर है। उन्होंने कहा है कि ‘भारत का महत्वपूर्ण टुकड़ा’ देने से तमिलनाडु के ‘मछुआरे भाइयों और बहनों’ के लिए परेशानी पैदा हो गई है। एक वीडियो में, उन्होंने ‘श्रीलंका को कच्चातिवू सौंपने में मिलीभगत’ के लिए कांग्रेस और द्रमुक पर निशाना साधा। मीडिया के एक वर्ग द्वारा सामने लाए गए ‘नए तथ्यों’ पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मोदी ने उन्हें ‘आंखें खोलने वाला’ और ‘चौंकाने वाला’ बताया और इंदिरा गांधी सरकार पर राष्ट्रीय हितों के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया। उनकी पार्टी और गठबंधन के अन्य  लोग भी इसमें शामिल हो गए।

प्रधानमंत्री मोदी की बयानबाजी का जवाब देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने पूछा कि क्या मोदी सरकार एक पुराने समझौते और एक ऐसे मुद्दे को फिर से खोलना चाहती है, जो श्रीलंका के साथ संबंधों को खराब कर सकता है। यह बयानबाजी भी है, लेकिन एक चेतावनी भी, क्योंकि कोलंबो में मछुआरे और सरकार, दोनों इस मुद्दे पर काफी संवेदनशील हैं।

चुनाव चाहे तमिलनाडु, भारत या श्रीलंका में हो और सत्ता में चाहे जो भी रहे, चुनाव से पहले या बाद में असली मुद्दा दोनों तरफ मछुआरों के मछली पकड़ने का अधिकार है। भारतीय क्षेत्र में मछली उत्पादन तेजी से कम हो रहा है और कई ट्रॉलर चलाने वाले भारतीय मछुआरों पर श्रीलंका तट के करीब पानी में मछली पकड़ने के आरोप लगाए गए हैं। स्वाभाविक रूप से इससे श्रीलंका परेशान है। यह कभी नहीं खत्म होने वाला मुद्दा है। इस क्षेत्र में सदियों से मछली पकड़ने वाले तमिलनाडु के मछुआरे कई बार कच्चातिवु से आगे श्रीलंकाई पानी में चले जाते हैं और उत्तरी श्रीलंकाई तट के पास मछली पकड़ते हैं। उन्हें श्रीलंकाई नौसेना गिरफ्तार कर लेती है। तमिलनाडु में राजनीतिक दल जब हंगामा करते हैं, तो केंद्र सरकार कूटनीतिक हस्तक्षेप करती है और फिर उन्हें छोड़ा जाता है।

साल-दर-साल यह चक्र दोहराया जाता है और इसका कोई अंत नहीं दिखता। तमिलनाडु के राजनेता नियमित रूप से मांग करते हैं कि कच्चातिवु को श्रीलंका से ‘वापस’ लिया जाए, क्योंकि भारत ने इसे ‘बिना सोचे-समझे’ सौंप दिया था। वर्ष 2008 में अन्नाद्रमुक और वर्ष 2013 में द्रमुक ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, लेकिन केवल यह बताया गया कि द्वीप की वर्तमान स्थिति एक समझौता है, जिसे पलटा नहीं जा सकता है।

प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि तमिलनाडु की सरकारें केंद्र सरकार से शिकायतें करती रही हैं। यह मुद्दा मूलतः मछुआरों का है। उन्होंने कहा कि ‘श्रीलंका ने 6,184 मछुआरों और 1,175 नावों को हिरासत में लिया है।’ यह सच है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और न ही इसके खत्म होने की संभावना है। इसमें किसी देश की ‘संप्रभुता’ नहीं, बल्कि मछली पकड़ने का अधिकार शामिल है। यह ध्यान देना जरूरी है कि गुजरात के मछुआरों का पाकिस्तान के साथ विवाद है और पश्चिम बंगाल एवं ओडिशा के मछुआरों का बांग्लादेश के साथ। गुजरात में सौराष्ट्र एवं कच्छ के सैकड़ों लोगों को पाकिस्तान के जल क्षेत्र में जाने के लिए हिरासत में लिया गया है और हजारों पाकिस्तानी भी भारतीय जेलों में तब तक के लिए बंद हैं, जब तक कि उनके मामले कूटनीतिक रूप से और दोनों देशों की अदालतों द्वारा हल नहीं हो जाते। तमिलनाडु में यह मुद्दा क्यों चर्चा में है, सिवाय इसके कि अभी लोकसभा के चुनाव हैं? यह मुद्दा मछुआरों के अधिकारों और वोट व सत्ता के लिए होड़ करने वाली दो द्रविड़ पार्टियों के बीच राजनीतिक बयानबाजी तक ही सीमित है।

वर्ष 2009 में जातीय हिंसा खत्म होने के बाद से श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते धीरे-धीरे सुधरे हैं। क्या कच्चातिवु का मुद्दा इस रिश्ते को बिगाड़ने वाला है? सबसे महत्वपूर्ण बात है कि चीन पूरे दक्षिण एशिया में भारत को घेरने का प्रयास कर रहा है। इस पूरे क्षेत्र में खींचतान को देखते हुए हमें सोचना होगा कि क्या इस तरह के घरेलू और चुनावी मुद्दे हमारे राष्ट्रीय हित में हैं! 

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