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उत्तराखंड

हरित क्रांति में हिंसा की फसलें, भारी सामाजिक-आर्थिक विषमता थी प्रमुख वजह

हरित क्रांति के साथ जो ‘नया’ पंजाब बनता गया, उसमें भारी सामाजिक-आर्थिक विषमता थी। जब समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं एक सीमा से अधिक बढ़ जाती हैं, तब हिंसा भी सिर उठाने लगती है। 1980 के दशक में पंजाब में जिस हिंसा ने उग्र रूप ले लिया था, उसके कल्ले हरित क्रांति से ही फूटे थे।

भारत में किसानों का विरोध प्रदर्शन एक आम घटना-सी बन गया है। ये विरोध प्रदर्शन हिंसा की छिटपुट घटनाओं से चिह्नित हैं। हरित क्रांति में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, पर इसकी कथित सफलता के पीछे छिपी वास्तविक कहानी भयावह है। सुप्रतिष्ठित पर्यावरण कार्यकर्ता और विद्वान डॉ वंदना शिवा ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक द वायलेंस ऑफ द ग्रीन रेवोल्यूशन (हरित क्रांति की हिंसा) में हरित क्रांति से उत्पन्न व्यापक पर्यावरणीय और सामाजिक परिवर्तनों के बीच की जटिलताओं को खोजा है। उन्होंने हरित क्रांति पद्धति में छिपी बहुआयामी हिंसा की पड़ताल अनेक घटनाओं का उदाहरण देते हुए की है। इस पुस्तक में उन्होंने पारिस्थितिक सिद्धांतों से जोड़ कर वर्तमान और भविष्य में हरित क्रांति से उबलते एक-एक पहलू की भविष्यवाणी कर दी थी।

हरित क्रांति का प्रादुर्भाव 20वीं शताब्दी के मध्य महत्वाकांक्षी कृषि परिवर्तनों के साथ हुआ था। इसका उद्देश्य उच्च उपज वाली फसल किस्मों और कृषि रसायनों को अपनाकर कृषि उत्पादन को बढ़ाना और वैश्विक भूख को कम करना था, परंतु इसके परिणाम सकारात्मक नहीं थे। उस समय भविष्य में इसके क्या-क्या सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और पारिस्थितिक परिणाम होंगे, इसका आकलन नहीं किया गया। हमने अपनी भौगोलिक सीमाओं में जन्मे तथा सदियों से पीढ़ियों को पोषित करते आए बीजों को तिलांजलि दे दी और अंधाधुंध पानी एवं अनेक जहरीले रसायनों के बल पर अधिक उत्पादन देने वाले बीजों को अपनाते चले गए।

गहन रासायनिक कृषि पद्धतियों से उत्पन्न पारिस्थितिक विघटन, जिसमें मिट्टी का कटाव, भूजल की कमी और पर्यावरण जैसे मुद्दे शामिल हैं, ने पंजाब के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक ताने-बाने को गहराई से प्रभावित किया। बड़े कृषि व्यवसायों में धन और शक्ति का संकेंद्रण, छोटे किसानों का बड़े स्तर पर विस्थापन और ग्रामीण ऋणग्रस्तता में वृद्धि आदि हरित क्रांति के विनाशकारी प्रभाव हैं।

गहन कृषि क्रियाओं को निर्बाध चलाना पंजाब के बड़े किसानों की क्षमता से बाहर हो गया, तो उन्हें देश के अन्य राज्यों से बड़े पैमाने पर मजदूरों को बुलाना पड़ा। बिहार, मध्य प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश से अधिकांश मजदूर जाकर पंजाब के खेतों में काम करने लगे। उनमें से कई कृषि मजदूर और उनके परिवारों ने पंजाब में ही बसना शुरू कर दिया, जिससे पंजाब की सामाजिक-संस्कृति संरचना पर भी प्रभाव पड़ने लगा। हरित क्रांति के साथ जो ‘नया’ पंजाब (बड़े किसानों और मजदूरों के साथ) बनता गया, उसमें भारी सामाजिक-आर्थिक विषमता थी। जब समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं एक सीमा से अधिक बढ़ जाती हैं, तब हिंसा भी सिर उठाने लगती है। बीती सदी के 1980 के दशक में पंजाब में जिस हिंसा ने उग्र रूप ले लिया था, उसके कल्ले हरित क्रांति से ही फूटे थे। इसका सबसे अधिक कहर पंजाब के किसानों और कृषि मजदूरों पर ही टूटा था।

बेशक हरित क्रांति ने खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता पैदा की और देश को खाद्य-निर्यातक राष्ट्र की श्रेणी में ला खड़ा किया। लेकिन इस प्रणाली से जुड़े पर्यावरणीय, पारिस्थितिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक प्रदूषण की अनदेखी नहीं की जा सकती। भूजल की अत्यधिक कमी, मिट्टी पर रेगिस्तानीकरण का साया, जैव विविधता का अकूत ह्रास और सामुदायिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव हरित क्रांति के ऐसे दुष्परिणाम हैं, जिनकी काली छाया भविष्य पर मंडराती रहेगी।

वायुमंडल में कुल उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों का लगभग एक-तिहाई हिस्सा केवल कृषि क्षेत्र की देन है, और वह भी हरित क्रांति वाली कृषि की। इस तरह कृषि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाला मानवीय कार्यकलाप है। इस खेती को संभालने और परिवार की आजीविका के लिए उससे उत्पादन लेते रहने के लिए सभी आदानों (बीज, रासायनिक उर्वरक, रोगनाशक, कीटनाशक, और खरपतवार नाशक रसायन, ट्रैक्टर, कंबाइन, हार्वेस्टर और अन्य उपकरणों, आदि) के लिए बाजार पर बढ़ती निर्भरता ने किसानों को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया है, जिससे अनेक किसान आत्महत्या करके ही बाहर निकल पाते हैं। मानव समाज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली हिंसा के और भी अनेक आयाम हैं। पारिस्थितिक प्रक्रियाओं का टूटना, पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और अनगिनत जीवों पर संकट भी हिंसा के द्योतक हैं, जो अंततोगत्वा सामाजिक हिंसा से जुड़ जाते हैं और ये सब हरित क्रांति की कोख से जन्मे हैं।

वह भारतीय सभ्यता, जो कभी अपने वैभव-भरे अतीत में 500 तरह के पेड़-पौधों से अपना भोजन चुनती थी, अब हरित क्रांति काल की चंद फसलों से ही भोजन प्राप्त करने के लिए अभिशप्त है और अपनी ऊर्जा आवश्यकता का लगभग 60 प्रतिशत केवल तीन फसलों (गेहूं, चावल और मक्का) से प्राप्त करने के लिए बाध्य है। वर्तमान में जारी किसान प्रदर्शन से एक झकझोर देने वाला पहलू यह भी निकलकर आता है कि कृषि-विविधता के अनन्य देश के किसानों की सांसें दो दर्जन से भी कम फसलों पर अटकी हैं, जिनके लिए वे न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग कर अपनी आजीविका बचाने का जतन कर रहे हैं।

हरित क्रांति के बीजों ने भूजल का भारी दोहन किया है, मिट्टी, जल और वायु को कलुषित कर जन स्वास्थ्य के साथ अन्य सभी थलचरों और जलचरों के स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित किया है। और सबसे बड़ी बात, पश्चिम से आयातित इस खेती के चलते खाद्य सुरक्षा और किसानों की संप्रभुता से समझौता किया गया है। हरित क्रांति ने किसानों को कर्ज की गुलामी और निराशा की विषैली धुंध में धकेल दिया है।

खाद्य सुरक्षा और खाद्य प्रभुसत्ता क्षणिक चिंता के नहीं, बल्कि स्थायी चिंतन के विषय हैं। खाद्य सुरक्षा और संप्रभुता का मूल पृथ्वी की अनूठी विशेषताओं और पारंपरिक पारिस्थितिक कृषि पद्धतियों में निहित है। उत्पादकता केवल उन्नत बीजों पर निर्भर नहीं हो सकती, बल्कि यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करती है, जो मिट्टी की गुणवत्ता, जैव विविधता और कृषि की पारिस्थितिक अखंडता पर निर्भर करता है।

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