अंदर के शब्द बाहर आकर सुनते हैं सुर… पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
अलंकरण समारोह 13 मार्च, 2024 को दिल्ली में प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के मुख्य आतिथ्य में हो रहा है।
शब्दों की महान परंपरा के सतत सम्मान और श्रेष्ठतम सृजन को रेखांकित करते हुए इस बार शब्द सम्मान का सर्वोच्च अलंकरण ‘आकाशदीप’ हिंदी में विनोद कुमार शुक्ल और मलयालम में एम.टी. वासुदेवन नायर को दिया जा रहा है। साथ ही श्रेष्ठ कृति सम्मान कुमार अम्बुज (कविता), मनोज रूपड़ा (कथा), दलपत सिंह राजपुरोहित (कथेतर), मालिनी गौतम (भाषाबंधु) और श्रेष्ठ पहली कृति के लिए चिन्मयी त्रिपाठी को दिए जाएंगे। यह अलंकरण समारोह 13 मार्च, 2024 को दिल्ली में प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के मुख्य आतिथ्य में हो रहा है।
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया : सुंदर-सी लगती है शब्द और सुरों की यात्रा
जो हमारे अंदर शब्द गूंजता है, वह बाहर आकर जब सुर बन जाता है तो मुझे हमेशा यह यात्रा सुंदर-सी लगती है। मैं बार-बार इस यात्रा का आनंद लेता हूं। कहते हैं न कि जिसका सुर से रिश्ता होता है, उसका सारी दुनिया से रिश्ता हो जाता है। सुर से जुड़ने का मतलब है साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, रंगमंच से जुड़ जाना। मेरे लिए सुर कभी खत्म होने का सफर नहीं है। नए शब्दों में मैं नया सुर ढूंढता हूं। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि सुंदर शब्दों से बने साहित्य और सुरों से सजे संगीत में जब रिश्ता बनता है तो उसका असर देर तक देखने को मिलता है। अमर उजाला का शब्दों और सुर के बीच रिश्ता बनाने के इस प्रयास में मुझे रोशनी की किरण दिखाई दे रही है।
अपनी जिंदगी में शब्दों के सफर पर बात करूं तो पढ़ाई-लिखाई करके नौकरी की थी, स्टेनोग्राफर के रूप में, इलाहाबाद (प्रयागराज) में। उन दिनों प्रेमचंद, प्रसाद सभी को खूब पढ़ते थे। आर्थिक रूप से जितना सक्षम हो सकते थे, पुस्तकें खरीदते थे। नहीं तो पुस्तकालय थे, वहां जाकर पढ़ते थे। साहित्य से हमेशा एक लगाव बना रहा। बाद में जब मैंने और प्रख्यात संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा जी ने शिव-हरि के रूप में फिल्मों में संगीत दिया तो बहुत सारे शायरों, कवियों से संपर्क हुआ। शहरयार, निदा फाजली, जावेद अख्तर जैसे शायर फिल्मों के गीतकार थे। जैसे रत्नों में हीरा होता है, ये शायर भी वैसे ही हैं। लेकिन अब फिल्मों में ऐसी शायरी, ऐसे गीतों का चलन कम होता दिखता है। विदेश की नकल होती है, धुनों पर गीत बैठा दिए जाते हैं। अब हल्के गीत आ रहे हैं। आज लोगों की पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। मुझे अच्छी तरह याद है कि पहले ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी पत्रिकाएं हर घर में दिख जाती थीं। इलाहाबाद तो साहित्यकारों का गढ़ था। धर्मवीर भारती जी थे, हम लोग तो मित्र थे। जब मन होता, उनके घर चले जाते, मुंबई में भी। उस समय पत्रिकाएं पढ़ी जाती थीं, दाढ़ी बनाते समय हम रेडियो सुना करते थे।
आज शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों की हर जगह कमी दिखती है। क्या आज ऐसे कोई राजनेता हैं, जो मेरा तानपुरा मिला दें? मैं बांसुरी बजाने की बात नहीं कर रहा। अगर आप योग करने जा सकते हैं तो संगीत क्यों नहीं सीख सकते हैं? कोई सीखना चाहे तो मैं अपने विद्यार्थी भेज सकता हूं। आज क्या कलाकारों के बारे में किसी को कोई चिंता है? गाने-बजाने से क्या अब किसी का सरोकार रह गया है? मुझे याद है, पहले रात-रात भर संगीत समारोह चलते थे। आज भी जहां ऐसे कार्यक्रम होते हैं, मैं उन्हें बहुत प्यार, आशीर्वाद देता हूं। मैं खुद को बहुत बड़ा कलाकार नहीं मानता, बल्कि मैं आज भी विद्यार्थी हूं। मेरा हमेशा से यह कहना रहा है कि जिस नगर में, जिस जगह शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम नहीं होते या कम होते हैं, वहां के संगीत प्रेमियों, संगीत रसिकों को शास्त्रीय संगीत से वंचित किया जा रहा है। यह अपराध उनका है, जिन पर ऐसे कार्यक्रम कराने की जिम्मेदारी है, क्योंकि संगीत है तो सब है, संगीत नहीं रहा तो सब खत्म हो जाएगा। जीवन की लय खत्म हो जाएगी। लेकिन इस मामले में मैं अमर उजाला परिवार को एक बार फिर से धन्यवाद देना चाहूंगा कि साहित्य और संगीत के रिश्ते को लोगों तक पहुंचाने की लगातार पहल हो रही है। शब्दों और सुरों पर रोशनी डालने की इस परंपरा का स्वागत।
राकेश चौरसिया : राग के लिए शब्द तो सीख हैं!
जहां तक साहित्य से संगीत के रिश्ते की बात है, मैं बचपन में बच्चों की किताबें खूब पढ़ता था। बड़ा होने पर संगीत की पुस्तकें अधिक पढ़ने लगा। रागों के लिए शब्द मुझे ताकत देते हैं। मैं हमेशा यही सोचता हूं कि हम लोग इतनी यात्राएं करते हैं तो अच्छी किताबें साथ रहनी चाहिए। अमर उजाला के शब्द सम्मान में मैं बाबू जी (पंडित हरिप्रसाद चौरसिया) के साथ बांसुरी बजा रहा हूं। बाबू जी का आशीर्वाद मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो भी हूं, उन्हीं की बदौलत हूं। जब मैं बच्चा था, तब बाबू जी संगीत जगत के बहुत बड़े स्टार हो चुके थे। वे बहुत व्यस्त रहते थे।
मैं छोटी बांसुरी बजाता था तो उनकी क्लास में भी नहीं बैठ पाता था। मेरे लिए उन्हें अलग से बैठना पड़ता था। जब कभी वे थोड़ा समय निकाल पाते तो मुझे सिखाते थे। मेरा जो असली सीखना हुआ, वह उनके साथ मंच पर ही हुआ। पहले तानपुरा बजाता था। उंगलियां बड़ी हुईं और बांसुरी बजाने लगा तो मंच पर उनके साथ संगत करते हुए मेरा सीखना हो सका। इसलिए जब भी बाबू जी के साथ बजाने का अवसर आता है तो वह कार्यक्रम मेरे लिए एक सीख होता है। ग्रैमी अवॉर्ड लेने के लिए मैं खुद गया था। जब मेरे नाम की उद्घोषणा हुई तो मुझे लगा कि मैं यहां से अपने देश हिंदुस्तान के लिए संगीत के माध्यम से कुछ ले जा रहा हूं। यह ग्रैमी बाबू जी के लिए ही है, उन्हीं के आशीर्वाद के कारण है।